घूँघट उठाया तो सासरे की देहरी पर थी
मंगल गान गाए जा रहे थे
सकुचाई- घबराई, कुल तेरह की उम्र में
मेरे फेरे करवाए गए थे
डबडबाई आखों से मैं सबको देख रही थी
माँ याद आ रही थी
नथ के बोझ से नाक दुःख रही थी
साड़ी मेरी खुली जा रही थी
ज़ोरों की भूख लग रही थी
चक्कर सा आ रहा था
इतना सारा आडंबर देख
मेरा नन्हा चित्त घबरा रहा था
पिछले साल ५वी पास की थी
कक्षा में प्रथम आयी थी
अगले ही दिन बापू ने स्कूल छुड़वा
मेरी मँगनी करवायी थी
मैं कुछ ना बोली
बचपन से सीखा था
छोरियाँ जवाब ना देवे हैं
उनका राज सिर्फ़ चूल्हा चौका था
आज मेरा गौना हुआ था
ख़ूब गाजे बाजे से आयी थी बारात
आख़िर मैं मुखियाजी की बहु थी
मेरा ब्याह हुआ था,
उनके १६ साल के पोते के साथ
सुना था ख़ूब सुंदर है,
शहर में पढ़ता है
पर आज भी अपने दादा की
संटी से बहुत ही डरता है
पेट में दर्द था बहुत आज,
दो दिन पहले ही महीना ख़त्म हुआ था
दादी बोली थी बापू से
सही समय है, सासरे भेज दे
बापू ने वही किया, जो दादी ने कहा था
माँ की आखें पल्ले में ढकीं थोड़ी नम थीं
क्यूँ, तब मैंने नहीं जाना था
उनके रोने का कारण
मैंने आज पहचाना था
कच्ची पक्की रसोई आती थी
सो शाम को हलवा नहीं बना पायी
घुट घुट के जी दुखा मेरा
जब सासु ने ख़ूब डाँट पिलाई
क्या माँ ने कुछ नहीं सिखाया
यूँ ही भेज दिया
हम भी मूर्ख हैं ले आए
ना कोई आवभगत ही हुई
ना ही ऊँचा दहेज मिला
रात में अपने कमरे में पहुँची
तो बदन टूट रहा था
संयम तो विरासत में मिला ही था
सो कमबख़्त रोना भी नहीं छूट रहा था
मेरा दूल्हा ज्यों ही आया
मैं तेज़ घबरा गयी
शर्म तो आ ही रही थी
थोड़ा और मैं ख़ुद में समा गयी
आकर मेरे समीप बैठा
मेरा हाथ उसने थाम लिया
बहुत ही प्यार से,
धीरे से मेरे गाल सहला
उसने मेरा नाम लिया
मैं डर के मारे काँप रही थी
स्तिथी को मैं, थोड़ा थोड़ा भाँप रही थी
कुछ देर बाद मुझे उसने कस कर भींच लिया
मैं कराह रही थी दर्द से
चीत्कार करने का ना साहस था मुझमे
और ना ही मौक़ा मिला
फिर वो तो थक कर सो गया
भौचक्की सी भयभीत थी मैं
पल भर में मेरा बचपना
लाल तरल बन बह गया
अगली सुबह जब सासु आयीं
तो चादर को ख़ूब निहारा
जो लाल धब्बा नज़र आया उनको
तो होठों की मुस्कान और चेहरे की लाली का
मैं बिना कहे समझ गयी हर इशारा
पर ये ना समझी की मेरे दर्द से
उनको ख़ुशी क्यूँ हो रही है
बेटा ठीक हो जाओगी,
उनकी ना नज़र, ना उनकी ज़ुबान,
दोनो ही नहीं कह रही है
चंद रोज़ ही गुज़रे थे
कि मुझे मितली सी हुई
इतनी ज़ोर से जी घबराया
की मैं आज बहुत रोयी
दादी बोली, मुबारक हो मैं पर दादी बनने वाली हूँ
कुछ ही महीनो में मैं सोने की सीढ़ी चढ़ने वाली हूँ
मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ा उन्होंने क्या कहा
जब समझ आया तो मेरी खीज का ठिकाना नहीं रहा
दिन गुज़रते गए, कोई डॉक्टर ना था
दाई जो बोलदे, वही मेरे साथ होता था
चाहे कितना भी ख़याल रख लूँ
शरीर तो अभी कच्चा ही था
किसी ने ये ना सोचा कि
जिसको बच्चा होने जा रहा था
वो भी तो अभी एक बच्चा ही था
९ महीने पूरे हुए
प्रसव के दर्द ने विकराल रूप लिया
ख़ून जी भर के बहा
मेरी हड्डियों ने जवाब दे दिया
मैं चीख़ रही थी
सासु ढाँढस बाँध रही थीं
हे ईश्वर लड़का ही हो
मैं भीतर ही भीतर माँग रही थी
नहीं, ऐसा नहीं कि मुझे लड़की से कोई बैर था
मैं जो नरक देख रही थी,
उसके लिए मुझे वो स्वीकार नहीं था
मैं जानती थी, गाँव में हर लड़की की नियति यही होती है
ना सपने होते हैं, ना उम्मीद, ना स्वाभिमान
वो तो बस हर लम्हा
ज़रा ज़रा का, ख़ुद को खोती है
आख़िर वो वक़्त आया
जब एक क्रंदन सुनाई दिया
मुझे ओट से अपने पुत्र का मुँह दिखाई दिया
अधमरी तो पहले से थी
बस अब कुछेक सांसें ही मेरे पास कुल थीं
मुझपर तो किसी का ध्यान ही नहीं था
सासु अपने पोते में मशगूल थीं
आहिस्ता से मैंने शरीर त्याग दिया
मेरी यातना समाप्त हो गयी थी
बस एक दुआ,
मेरे जिगर में रह गयी थी
मेरे बेटे, ख़ूब ख़ुश रहना, ख़ूब नाम कमाना
पर कच्ची उम्र में ब्याह करके
ना ख़ुद पाप करना
और नहीं किसी को पाप का भागीदार बनाना