हिंदी के जाने-माने कवि हैं नरेश सक्सेना। उनकी कविताओं में बोध और संरचना के स्तरों पर अलग ताजगी मिलती है। बोध के स्तर पर वे समाज के अंतिम आदमी की संवेदना से जुड़ते हैं, प्रकृति से जुड़ते हैं और समय की चेतना से जुड़ते हैं तो संरचना के स्तर पर अपनी कविताएं छंद और लय के मेल से बुनते हैं।उन्होंने शब्द-संख्या के लिहाज से बहुत छोटी और बहुत कमाल की कविताएं लिखी हैं, लेकिन आज एक कविता रोज़ में हम उनकी थोड़ी लंबी लेकिन बहुत चर्चित कविता ‘गिरना’ पढ़वा रहे हैं. नरेश अपने कविता पढ़ने के अंदाज को लेकर भी कविता-प्रेमियों में काफी लोकप्रिय हैं. कविता के आखिर में इसकी बानगी देखी और सुनी जा सकती है…
नरेश सक्सेना की 'गिरना' कविता सम्यक रूप से जीवन-दर्शन को प्रतिपादित करने वाली एक कविता है। पंक्ति दर पंक्ति मनुष्य व मनुष्यता के पतन का आकलन करती तथा इस पतन की प्रवृत्ति के ऐतिहासिक एवं समसामयिक पहलुओं का विश्लेषण करती यह कविता मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। मानवता का यह पतन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों, राजनीतिक परिवर्तनों, आर्थिक संसाधनों व शक्तियों जुटाने के मार्ग में आ रहे परिवर्तनों से जुड़ा है, लेकिन यह कविता पतन के कारणों की तरफ नहीं देखती। यह पतन की व्याप्ति की ओर देखती है।
गिरना
चीजों के गिरने के नियम होते हैं
मनुष्यों के गिरने के कोई नियम नहीं होते
लेकिन चीजें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं
अपने गिरने के बारे में
मनुष्य कर सकते हैं
बचपन से ऐसी नसीहतें मिलती रहीं
कि गिरना हो तो घर में गिरो
बाहर मत गिरो
यानी चिट्ठी में गिरो
लिफाफे में बचे रहो
यानी आंखों में गिरो
चश्मे में बचे रहो
यानी शब्दों में बचे रहो
अर्थों में गिरो
यही सोच कर गिरा भीतर
कि औसत कद का मैं
साढ़े पांच फीट से ज्यादा क्या गिरूंगा
लेकिन कितनी ऊंचाई थी वह
कि गिरना मेरा खत्म ही नहीं हो रहा
चीजों के गिरने की असलियत का पर्दाफाश हुआ
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के मध्य
जहां पीसा की टेढ़ी मीनार की आखिरी सीढ़ी
चढ़ता है गैलीलियो और चिल्ला कर कहता है
इटली के लोगो,
अरस्तू का कथन है कि भारी चीजें तेजी से गिरती हैं
और हल्की चीजें धीरे-धीरे
लेकिन अभी आप अरस्तू के इस सिद्धांत को
गिरता हुआ देखेंगे
गिरते हुए देखेंगे
लोहे के भारी गोलों और चिड़ियों के हल्के पंखों
और कागजों और कपड़ों की कतरनों को
एक साथ, एक गति से, एक दिशा में
गिरते हुए देखेंगे
लेकिन सावधान
हमें इन्हें हवा के हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा
और फिर ऐसा उसने कर दिखाया
चार सौ बरस बाद
किसी को कुतुबमीनार से चिल्ला कर कहने की जरूरत नहीं है
कि कैसी है आज की हवा और कैसा इसका हस्तक्षेप
कि चीजों के गिरने के नियम
मनुष्यों के गिरने पर लागू हो गए हैं
और लोग
हर कद और हर वजन के लोग
खाए-पिए और अघाए लोग
हम लोग और तुम लोग
एक साथ
एक गति से
एक ही दिशा में गिरते नजर आ रहे हैं
इसीलिए कहता हूं कि गौर से देखो
अपने चारों तरफ
चीजों का गिरना
और गिरो
गिरो जैसे गिरती है बर्फ
ऊंची चोटियों पर
जहां से फूटती हैं मीठे पानी की नदियां
गिरो प्यासे हलक में एक घूंट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए
गिरो आंसू की एक बूंद की तरह
किसी के दुख में
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिए जगह खाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं का गीत
कि जहां पत्तियां नहीं झरतीं
वहां वसंत नहीं आता
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में
किसी का घर बनाते हुए
गिरो जलप्रपात की तरह
टरबाइन के पंखे घुमाते हुए
अंधेरे पर रोशनी की तरह गिरो
गिरो गीली हवाओं पर धूप की तरह
इंद्रधनुष रचते हुए
लेकिन रुको
आज तक सिर्फ इंद्रधनुष ही रचे गए हैं
उसका कोई तीर नहीं रचा गया
तो गिरो उससे छूटे तीर की तरह
बंजर जमीन को
वनस्पतियों और फूलों से रंगीन बनाते हुए
बारिश की तरह गिरो सूखी धरती पर
पके हुए फल की तरह
धरती को अपने बीज सौंपते हुए
गिरो
गिर गए बाल
दांत गिर गए
गिर गई नजर और
स्मृतियों के खोखल से गिरते चले जा रहे हैं
नाम, तारीखें और शहर और चेहरे…
और रक्तचाप गिर रहा है
तापमान गिर रहा है
गिर रही है खून में मिकदार हीमोग्लोबीन की
खड़े क्या हो बिजूके से नरेश
इससे पहले कि गिर जाए समूचा वजूद
एकबारगी
तय करो अपना गिरना
अपने गिरने की सही वजह और वक्त
और गिरो किसी दुश्मन पर
गाज की तरह गिरो
उल्कापात की तरह गिरो
वज्रपात की तरह गिरो
मैं कहता हूं
गिरो
नरेश सक्सेना पेशे से निर्देशक भी हैं और वे अपनी कविता के माध्यम से यही निर्देशित करते हैं कि मनुष्य का गिरना या नष्ट होना समाज में उल्लास एवं चेतना के पुनर्संचार तथा शोषण व अत्याचार के विनाश का कारक बनना चाहिए ताकि दुनिया से मानवता न नष्ट हो, सर्जनात्मकता न नष्ट हो, प्रतिरोधात्मकता न नष्ट हो।