शाम ढल चुकी है ,
नौ बजनेवाले हैं
भीड़ हो गयी है काम
सबलोग अपने घरों में
बंद होनेवाले हैं
चलते चलते तभी यकायक ;
नज़र पड़ी मेरी , सड़क पर
तो अब दिखी है ये ,
जब हटी है इसपर से
लोगो और गाड़ियों की परत |
कितनी स्थिर , शाँत और सहनशील
है ये सड़क..........
गोया (जैसे) ली हो इसने कोई खास शपथ !
कोई चले , कैसे भी चले, कितना भी चले,
कभी भी चले !
पड़ता ही नहीं इसे ज़रा भी फरक
स्वयं अचल होकर भी , लोगों के साथ चलती है
ना कभी ये उफ्फ करती है ,
ना कभी आँखे मलती है
कोई केला खाकर छिलका फेंकता है ,
कोई थूकता है , तो कोई क्रोध में
इसे ठोकर मारता है
पर, सब सेहती है ये सड़क !
की हुई है इसने पूरी तैयारी,
है जो इसपर हम सब की जिम्मेदारी |
जिम्मेदारी.......जिम्मेदारी से याद आया
क्यों ना जल्दी से अपने घर पहुँच जाऊं ?
ऐ सड़क, सोचती हूँ मैं....
ज़्यादा नहीं , थोड़ा ही सही
क्यों ना तेरे सुन्दर गुणों को अपनाऊ ?
चल , आज मैं भी थोड़ी सड़क बन जाऊं ?