ऐ काश--कि सभी बच्चे होते
संग होते और सच्चे होते
क्यूँ बढ़ गए--जवान हो गए
खुद से ही अन्जान हो गए
क्या रंग थे बचपन के
हाथों में हाथ--कँधे पर हाथ
मुस्कान साथ में पल-पल
कद क्या बढ़ा--? नशा ही चढ़ा
वो पल ढ़ूँढते परेशान हो गए
उपहास के संग--मुस्कान हो गए
वो खिलखिलाना--दौड़ना--खेलना
वर्तमान हैरान है-! ऐसे पल भी थे
तनिक पता न था-मौसम के साथ
बदल जाते हैं दिल और जज़्बात
खिलखिलाहट मानो-सुनसान हो गए
सन्नाटे की पहचान हो गए
वाणी की लचक कठोर हो गई
नैनों की पलकों ने भी नज़रें चुराई
अश्क़ों के प्राण बेजान हो गए
दिल और दिमाग छोड़ चले एकदूजे को
घर था अरमानों का--टुटे मकान हो गए
ऐसे में तो--
स्वर्णिम वो बचपन की रातें
घंटों साथ होती थी--
बातें--मुलाक़ातें
दिल--दिमाग--अरमानें--ख़्वाहिशें
साथ-साथ होती थी हरपल
रंग थे सभी--मिलकर बनते हैं जो
इन्द्रधनुष स्नेहिल-मनोव्योम में जो
दे जाते थे--लहराते से
असीम--खुशियाँ-अपनापन--प्यार
जिनके आभास को--एहसास को
गँवा बैठा है डोर--वर्तमान का
भरकर भी-सूना आँगन आसमान का..
भरकर भी-सूना आँगन आसमान का...।
Explanation :
""सूना आँगन आसमान का"" शीर्षक कविता एक मनोवैज्ञानिक कविता है ,जिसमे कवि ने बचपन और युवावस्था की स्थितियों को बताने की कोशिश की है ,
कवि कहते है कि बचपन का समय निर्विकार होता है, स्वच्छंद और निर्दोष होता है , बच्चे एक दूजे के कंधों पे हाथ रखे निःस्वार्थ भाव से मुस्कान बिखेरे समय के साथ अटखेलियां करते नज़र आते है , चांदनी रात हो या सुहानी शाम बचपन का समय मिलकर और भी सुगन्धित कर देता है । मगर जैसे जैसे युवावस्था की ओर कदम बढ़ने लगता है ,इस संसार के सभी भाव उनमे समाहित होने लगते हैं । मद , अहंकार ,ईर्ष्या जलन जैसी मनोविकृतियों के जाल में फंस जाता है , और उन स्मृतियों में क्षीणता आने लगती है । स्वयं को ही सिद्ध करने में औरों को अनदेखा करने के भाव उभरने लगते है, ।
ऐसे में तो वही बचपन वाला दिन शाम और रात ही याद आती है ,जो केवल स्मृतियों में ही जीवित है । जब वक़्त भी ऐसे निर्विकार लम्हों को देखकर थम सा जता था । वर्तमान की स्थितियां उन एहसास के लिए ,उन आभास के लिए तरसती नज़र आती है , ऐसा लगता है-परिपूर्णता के बाद भी खालीपन सा दिखता है ,मानो भरकर भी आसमान सूना है । वर्तमान परिथिति में खाली खाली सा आभास होता है ।