भक्त प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की कथा पौराणिक है। पुराणों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि नहीं है किन्तु वे शाश्वत हैं। भक्त प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की कथा पिता-पुत्र के संघर्ष की कथा है। पिता पारंपरिक एवं पुरातनवादी है। जबकि पुत्र नवीनता व ताजगी लिए हुए है। परंपरा एवं अधुनातन के मध्य एक संघर्ष है। यह संघर्ष सदा से है, शाश्वत है। दो पीढ़ियों के मध्य एक फासला है। पिता इस फासले को नहीं समझता है। लगभग हर पिता यही करता है। पिता अपने अधूरे सपनों को पुत्र के कंधों पर ढोना चाहता है किन्तु पुत्र के भी अपने सपने हैं। अपना नया संसार है दोनों के मध्य एक संघर्ष है।
पिता शब्द मलकियतता का द्योतक है वहीं पुत्र विनम्रता का। जीसस क्राइस्ट ने कहा है कि, ,तुम बच्चा बनकर ही मेरे प्रभु के साम्राज्य में प्रवेश पा सकोगे।' अर्थात जो बच्चे के भांति सरल है, विनम्र है वह ही आस्तिक है, ईश्वर को पाने का अधिकारी है। और जो अविनम्र और कठोर है, वह नास्तिक है। हिरण्यकश्यप शक्तिशाली और कठोर था उसने प्रह्लाद को मरवाने के लिए लाख यत्न किये, किन्तु वह हार गया। जीत शक्ति की नहीं सत्य की होती है, विनम्रता की होती है। बच्चा सदैव सत्य का मूर्त रूप होता है, किन्तु जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है संसार उसे असत्य व बेमानी सिखाता चला जाता है। पिता की दुनिया असत्य और फरेब की है। पुत्र की दुनिया सत्य की है अर्थात जो अधुनातन है, नया है वही सत्य है।
हिरण्यकश्यप अपनी नास्तिकता सिद्ध करने के लिए प्रह्लाद को नदी में डूबोता है, पहाड़ से गिरवाता है और अंत में अग्नि में जलवाता है, किन्तु हर बार प्रहलाद बच जाता है। बच्चे भारविहीन एवं सुकोमल होते हैं। नवजात शिशु पानी में नहीं डूबता है। वह भारविहीन है। गिरकर चोट नहीं खाता है वह सुकोमल है। बच्चे के जीवन में कोई प्रतिरोध नहीं है। गिरने पर यदि प्रतिरोध न्यूनतम हो तो चोट लगने की संभावना भी नगण्य हो जाती है जैसा अक्सर बच्चों के साथ होता है। आग का न जला पाने का अर्थ क्रोध मुक्ति से है। बच्चा सदैव क्रोध रहित है। वह ईश्वर के साम्राज्य ने में प्रवेश पाने का असली हकदार है।
नास्तिकता एक नकारात्मक सोच है। किसी चीज की अनुपस्थिति का नाम नास्तिकता है। नास्तिकता एक रिक्तता है, शून्यता का भाव है। वहीं आस्तिकता बड़ी सकारात्मक है। एक स्वीकारोक्ति है। इसमें 'नहीं' का बोध नहीं है। इस अवलोकन से बच्चे के जीवन में कोई नकारात्मकता नहीं है। वह सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ है। भक्त प्रह्लाद के जीवन में कोई रिक्तता नहीं है वह सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण है। हिरण्यकश्यप ने कठोर तपस्या करके भगवान को प्रसन्न कर वरदान पा लिया की संसार का कोई भी जीव-जंतु, देवी-देवता, राक्षस या मनुष्य उसे मर न सके। न ही वह रात में मरे न दिन में, न पृथ्वी पर न आकाश में, न घर में न बाहर, यहाँ तक कि कोई शस्त्र भी उसे मार न पाए। भगवान को न मानने वाला वरदान कहां से ले आया यह बात थोड़ी विरोधाभासी. है। किन्तु बड़ी प्रतीकात्मक है। यह आत्मा की अमरता की उद्घोषणा है।
गीता में श्रीकृष्ण ने आत्मा को अमर और अविनाशी बताया है जिसे न शस्त्र काट सकता है, न पानी गला सकता है, न ही अग्नि जला सकती है। रहस्य विज्ञान (ओकल्ट साइंस) के अनुसार मनुष्य का पहला शरीर भौतिक शरीर है जो पंच-तत्वों से निर्मित है और दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (एस्टरल बॉडी) है जो एक भाव शरीर है। भौतिक शरीर के मर जाने के बाद भी सूक्ष्म शरीर बना रहता है। कोई भी सांसारिक तत्व उसे नष्ट नहीं कर सकता है। ध्यान की परम अवस्था में इसे जाना जा सकता है। न पृथ्वी पर, न आकाश में अर्थात यह स्थानातीत है, सूक्ष्म है। न दिन में, न रात में का आशय इसके समयातीत होने से है। समय और स्थान स्थूल संसार के घटक हैं। सूक्ष्म जगत में समय और स्थान का कोई बोध नही रह जाता है।
हिरण्यकश्यप की मृत्यु ईश्वर के हाथों से होती है। जीवन के दोनों छोर जन्म और म्रत्यु सदा ही ईश्वर के हाथ में है। प्रकति एक हाथ से सर्जन करती है, तो दूसरे हाथ से विध्वंस, ताकि नया सर्जन किया जा सके। जन्म और मृत्यु दोनों मनुष्य की क्षमता से बाहर है। जो कार्य मनुष्य के नियंत्रण से बाहर हो, उसके प्रति एक स्वीकारोक्ति चाहिए, बोध चाहिए। अस्तित्व के प्रवाह के साथ चलने का नाम आस्तिकता है। अगर हिरण्यकश्यप यह घोषणा करता है की 'में ही ईश्वर हूँ' तो इस महावाक्य का आशय है 'अहम् ब्रह्मास्मि' अर्थात में ही ब्रह्म हूँ। मनुष्य जब परमात्मा का अनुभव कर लेता है तब वह उसी रूप में हो जाता है। 'अहम् ब्रह्मास्मि' अर्थात मुझ में ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां है। मैं ब्रह्म का अंश हूँ, जिसने ब्रह्म को जाना फिर उसकी कोई आकांक्षा शेष नहीं रह जाती है, वह मोक्षगामी हो जाता है। उसका भाव शरीर विसर्जित हो जाता है। हिरण्यकश्यप की मृत्यु भौतिक मृत्यु नहीं है, सूक्ष्म शरीर का विसर्जन है। परम मृत्यु है, मोक्ष है।