मैं झुकता हूँ
दरवाज़े से बाहर जाने से पहले
अपने जूतों के तस्में बांधने के लिए मैं झुकता हूँ
रोटी का कौर तोड़ने और खाने के लिए
झुकता हूँ अपनी थाली पर
ज़ेब से अचानक गिर गयी क़लम या सिक्के को उठाने को झुकता हूँ
झुकता हूँ लेकिन उस तरह नहीं
जैसे एक चापलूस की आत्मा झुकती है
किसी शक्तिशाली के सामने
जैसे लज्जित या अपमानित होकर झुकती हैं आंखें
झुकता हूँ
जैसे शब्दों को पड़ने के लिए आँखे झुकती हैं
ताकत और अधीनता की भाषा से बाहर भी होते हैं
शब्दों और क्रियाओं के कई अर्थ
झुकता हूँ
जैसे घुटना हमेशा पेट की तरफ़ मुड़ता है
ये कथन सिर्फ़ शरीर के नैसर्गिक गुणों
या अवगुणों को ही व्यक्त नहीं करता |
कहावतें अर्थ से ज़्यादा अभिप्राय में निवास करती हैं |
-- राजेश जोशी