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Poetry

Main Jhukta Hoon

 मैं झुकता हूँ

दरवाज़े से बाहर जाने से पहले

अपने जूतों के तस्में बांधने के लिए मैं झुकता हूँ

रोटी का कौर तोड़ने और खाने के लिए

झुकता हूँ अपनी थाली पर

ज़ेब से अचानक गिर गयी क़लम या सिक्के को उठाने को झुकता हूँ

झुकता हूँ लेकिन उस तरह नहीं

जैसे एक चापलूस की आत्मा झुकती है

किसी शक्तिशाली के सामने

जैसे लज्जित या अपमानित होकर झुकती हैं आंखें

झुकता हूँ

जैसे शब्दों को पड़ने के लिए आँखे झुकती हैं

 

ताकत और अधीनता की भाषा से बाहर भी होते हैं

शब्दों और क्रियाओं के कई अर्थ

 

झुकता हूँ

जैसे घुटना हमेशा पेट की तरफ़ मुड़ता है

ये कथन सिर्फ़ शरीर के नैसर्गिक गुणों

या अवगुणों को ही व्यक्त नहीं करता |

 

कहावतें अर्थ से ज़्यादा अभिप्राय में निवास करती हैं |

--   राजेश जोशी

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