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Poetry

Jo Thokar Khaate Hain

 

जो ठोकर खाते हैं

 

जो ठोकर खाते हैं वे प्रवाह पा जाते हैं

बिना गीत लिखे , बिना गीत गाए

वे चाल के लय , ताल  और छंद से परिचित हो जाते हैं |

 

ठोकर पत्थर नहीं खाते

या तो आदमी खाते हैं

या नदियाँ खाती हैं या हवाएँ खाती हैं

पत्थर तो टकराते हैं

जो भी ठोकर खाते हैं  प्रवाह पा जाते हैं |

 

जहाँ पानी को ठोकर खानी पड़ती हैं

बिना वाद्यों के आवाज़ें निकल आती हैं

 

ठोकर एक सम्भली हुई नई भाषा को जन्म देती हैं

यहीं पर ठोकर खाई हुई और ठुकराई हुई भाषा का

पता पड़ जाता है

 

छोटी ठोकर लरजती है गरजती है बड़ी होकर

पत्थरों से टकराता है पानी

पत्थर वहीं पड़े रह जाते हैं

आगे बढ़ जाता है ठोकर खाया हुआ पानी

जो ठोकर खाते हैं वे प्रवाह पा जाते हैं |

-- लीलाधर जगूड़ी

 

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