जिंदगी की वो शाम जो ढलती जा रही है,वो पड़ाव जब आंखों के सामने अंधेरा सा छाने लगता है,जब कांपते होंठ से ठीक तरह से शब्द भी नहीं निकल पाते,जब हाथ पैर खुद का सहारा नहीं बन पाते और जिंदगी खुद एक बोझ बन जाती है,तब जरूरत होती है किसी के सहारे की,वो सहारा जो इन कांपते हांथों को थामकर उम्रदराज हो चली इस जिंदगी को किनारे लगा दे ताकि बाकी का समय सुकून में कट सके.लेकिन मैं जिनकी कहानी आज आपको बताने जा रहा हूं वो उम्र के इस आखिरी पड़ाव में भी जिंदगी का कठिन इम्तिहान दे रही हैं.लड़खड़ाते कदमों से ही सही लेकिन वो आत्नसम्मान और खुद्दारी की लड़ाई बखूबी लड़ रही हैं.कमर पूरी तरह झुक चुकी है लेकिन अभी वो हिम्मत हारी नहीं है.आंखों की रोशनी भले ही धीमी हो गई है लेकिन हौंसलों की धार से आज भी वो अपनी राह खुद बना रही हैं.
कभी-कभी जिंदगी कड़वे इम्तिहान लेती है.जिंदगी की ढलती शाम में जब लोगों को आराम और सुख की जरूरत होती है,उस वक्त कोलकाता की सड़कों पर चाहे धूप हो बारिश या फिर कड़कड़ाती ठंड,87 साल की एक बुजुर्ग महिला बंगाली भाजा बेचते दिखाई देती है.पाली की रहने वाली शीला घोष 87 साल की उम्र में हर दिन 2 घंटे का लंबा सफर तय करके कोलकाता आती हैं और भाजा के साथ-साथ फ्राइज बेचती हैं.शीला घोष के पति, बेटा, बेटी सब इस दुनिया से रुख्सत हो गए.अब घर में बहू है, एक मेंटली डिसेबल्ड बेटी और एक पोता. जिनकी रोजी-रोटी की जिम्मेदारी शीला जी ने अपनी पूरी तरह से झुक चुकी कमर पर उठा ली है.
खुद्दारी क्या होती है, यह जानने के लिए शीला घोष के जीवन से और बेहतर मिसाल शायद कुछ और हो नहीं सकती।
पाली से कोलकाता के बीच वैसे दूरी ज़्यादा तो नहीं है पर 87 साल की बुजुर्ग के लिए यह एक लंबा सफर है, खासतौर पर अगर उनके साथ सामान बेचने की टोकरी हो, तो यह सफर और भी मुश्किल हो जाता है. इनके हाथ भाजा बनाते नहीं थकते और न ही इनकी आंखें उनको तलते हुए बहती है, इनके पैर भी इतनी दूर चलने के बाद नहीं थकते.इतनी बूढ़ी होने के बाद भी उनका मानना है कि वह बिलकुल स्वस्थ हैं और परिवार को पाल सकती हैं.
जहां शीला बंगाली भाजा बेचती हैं वहां से उनका घर करीब दो घंटे की दूरी पर है जहां से वो रोज अपडाउन करती हैं.जब शीला से पूछा जाता है कि वो थक जाती होंगी, तो वे सिर्फ हंस देती हैं और कहती हैं कि उनकी सेहत खराब नहीं है. शीला भाजा बेचकर दिनभर में तकरीबन 1200 रुपए तक कमा लेती हैं.
शीला जी हर रोज जिंदगी से जंग लड़ती हैं और हर रोज इस जंग में न सिर्फ वो जीतती हैं बल्कि हज़ारों लोगों को प्रेरणा भी देती हैं. उनके इस जज़्बे और हौसले को देखकर अच्छे अच्छे भी हैरान रह जाते हैं।
शीला ने अपनी बहू के साथ मिलकर मोमबत्तियां बनाकर बेचना शुरू किया लेकिन मोम बड़ा मंहगा पड़ता था. फिर एक दिन उनके पोते ने भाजा तलकर बेचने का आइडिया दिया. शीला को ये बात बहुत पसंद आई. तब से शुरू हुआ भाजा बेचने का वो सफर अब तक जारी है.
गरीबी के बावजूद नहीं लिया भीख का सहारा
परिस्थितियां ऐसी थीं कि वे चाहती तो भीख मांग लेतीं लेकिन उन्होंने मेहनत का रास्ता चुना.जिसके चलते वो लोगों के सम्मान योग्य बन गईं.शीला जी कहती हैं कि मैंने तय किया था कि जब तक जिंदा हूं सड़क पर भीख नहीं मांगूगी. शीला की उम्र और उनके सम्मान को देखते हुए स्थानीय लोग उन्हें तब याद करते हैं, जब कोई झगड़ा या विवादित मसला होता है.वो जाती हैं और बातचीत से मामला सुलझा देती हैं.
जो लोग शीला जी के नजदीक से गुजरते हैं, वो फ्राइज इसलिए नहीं खरीदते क्योंकि उन्हें पसंद है, बल्कि इसलिए कि उन्हें इस वृद्धा की मेहनत पर गर्व होता है और वे मदद करना चाहते हैं.
जिंदादिली किसे कहते हैं ये कोई पश्चिम बंगाल की शीला घोष से सीखे.जो समाज के लिए एक बेहतरीन उदाहरण हैं.हर रोज एक नई इबारत लिख रही हैं. हम शीला जी की इस जिंदा दिली को तहेदिल से सलाम करते है.